भारतीय विदेश नीति के निर्धारक, Determinants of Indian Foreign Policy

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भारतीय विदेश नीति के निर्धारण में कई कारकों का प्रभाव रहा है और वे वर्तमान में भी प्रभावित कर रहे हैं। इनमें से कुछ कारकों की प्रकृति स्थायी है, जबकि कुछ समय के साथ बदलते रहे हैं। आज हम भूगोल, इतिहास एवं सांस्कृतिक, आंतरिक स्थिति, बाह्य वातावरण आदि जैसे मुख्य भारतीय विदेश नीति निर्धारकों का विश्लेषण करेंगे।

भौगोलिक स्थिति

भारत का भौगोलिक आकार और स्थिति उसकी विदेश नीति के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। भारत एक विशाल देश है, संसार का यह सातवाँ सबसे बड़ा राष्ट्र है। इसका क्षेत्र लगभग 30 लाख वर्ग किलोमीटर है। इसके उत्तर में इसकी सीमाएँ विश्व प्रसिद्ध हिमालय पर्वत से लगी हुई हैं। इसकी 15,000 किलोमीटर लंबी थल सीमा पश्चिम में पाकिस्तान के साथ, उत्तर में भूटान, चीन और नेपाल तथा पूर्व में बंगलादेश एवं म्यांमार के साथ लगी हुई है। अफगानिस्तान एवं पूर्व सोवियत संघ, जम्मू-कश्मीर के काफी निकट हैं। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी हमेशा कहते हैं कि मित्र तो बदला जा सकता है, पड़ोसी नहीं। अतः भारत अपने सभी पड़ोसी देशों के साथ मैत्रीपूर्ण एवं तनावमुक्त संबंध रखना चाहता है।


हालांकि भारत, चीन और पाकिस्तान के सैन्य आक्रमण का शिकार रहा है, यह उसके हित में रहा है कि वह संचार के माध्यमों को बनाए रखे। अतः भारत चाहता है कि इन पड़ोसियों के साथ समस्याओं का समाधान शांतिपूर्ण तरीके से हो। यह एक सत्य है कि भारत दक्षिण-पूर्व एशिया और पश्चिमी एशिया का प्रवेश द्वार है, अतः भारत की सुरक्षा एवं मुख्य हित एशिया के बृहत् क्षेत्र की शांति एवं स्थिरता से जुड़ा हुआ है। इस तरह भारत क्षेत्रीय शक्तियों (जैसे ईरान, इंडोनेशिया, मलेशिया, जापान, वियतनाम आदि) से निकट संबंध बनाए हुए है। भारत पूर्वी देशों के साथ संबंधों में सुधार की नीति का पालन करता है, साथ ही वह आसियान देशों के साथ आर्थिक एवं सामरिक संबंध भी विकसित कर रहा है।


इतिहास एवं परंपरा

भारत की विदेश नीति उसकी ऐतिहासिक परंपरा को प्रतिबिंबित करती है। भारत ने अपने क्षेत्रीय विस्तार के लिए देश के बाहर कभी भी कोई आक्रामक अभियान नहीं किया है। असल में वह स्वयं कई आक्रमणों एवं विदेशी शासन का लक्ष्य रहा है। उल्लेखनीय है कि कई आक्रामकों ने इस देश को अपना घर मान लिया और यहाँ की प्रथा एवं परंपरा के अनुसार अपने को ढाल लिया। ब्रिटिश औपनिवेशिक साम्राज्य ने सुनियोजित तरीके से एक देशी रियासत को दूसरे के साथ लड़वा कर अपनी स्थिति सुदृढ़ की जिसमें विजेता और हारने वाले दोनों को ही बराबर का नुकसान हुआ। भारत के युद्धों से पीड़ित अनुभव ने उसकी विदेश नीति की प्रकृति को युद्ध-विरोधी बना दिया। इसके अतिरिक्त, महात्मा गांधी और उनके अनुयायियों के नेतृत्व में लड़े गए अहिंसक स्वाधीनता संग्राम की प्रकृति भी भारत की विदेश नीति में सुस्पष्ट रूप से दिखाई देती है।


सिर्फ यही नहीं, प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति की धरोहर भी विदेश नीति के निर्धारण में सहायक सिद्ध हुई है। 'वसुधैव कुटुम्बकम्' (अर्थात् सारा विश्व एक परिवार है) की पारंपरिक मान्यता प्राचीन धर्मग्रंथों और स्वामी विवेकानंद जैसे महापुरुषों के आध्यात्मिक कार्यों के माध्यम से भारत की जनता तक पहुँची है। भारतीय विदेश नीति की संरचना में विशेष तौर पर सहायक हुए मूल्य हैं- सहिष्णुता, अहिंसा और विश्व बंधुत्व। ए. अप्पादुरै के अनुसार, भारतीय विदेश नीति में अहिंसा की परंपरा, विदेश नीति की समस्या के एक अभिगम की पद्धति की सुविचारित स्वीकृति है जोकि सामंजस्य और शांति की प्रकृति पर बल देती है और प्रतिशोध तथा घृणा की प्रकृति के विपरीत है।

हालांकि, इस आदर्शवादी धारणा के अलावा शासन कला के प्राचीनकाल के विद्वान कौटिल्य द्वारा प्रतिपादित यथार्थवाद का भी महत्व नकारा नहीं जा सकता अर्थात आवश्यकतानुसार बल प्रयोग के द्वारा देश के अनिवार्य हितों की रक्षा करना भी जरूरी है। भारतीय नेता जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी संकट की स्थिति में राजनीति के निर्देशन में आदर्शवाद की सीमाबद्धता को स्वीकार करते हैं। गोआ (1961) और बंगलादेश (1971) में भारतीय कार्रवाई व्यावहारिकता को दर्शाता है।



आर्थिक दशा

कच्चे माल और प्राकृतिक संपदा का स्वामित्व तथा आर्थिक विकास की अनिवार्यता देश की विदेश नीति के निर्धारण में दिशा प्रदान करते हैं।

स्वतंत्रता के पश्चात हमारे नेता यह जानते थे कि देश को धन (कोष) का हस्तांतरण मशीनों एवं तैयार माल का आयात भारतीय सामान का निर्यात, तकनीकी कार्मिकों के प्रशिक्षण आदि कई बातों के लिए विदेशी सरकारों से सहायता लेनी पड़ेगी। विचारधारा से ध्रुवित विश्व में भारत को दोनों मुक्त बाज़ार अर्थव्यवस्था वाले पश्चिम और पूर्व सोवियत संघ के नेतृत्व वाले समाजवादी देशों के साथ मैत्री एवं सद्भाव की आवश्यकता थी। ऐसे में गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाकर भारत ने दोनों गुटों से मदद की अपेक्षा की। भारत ने मिश्रित अर्थव्यवस्था का मार्ग अपनाया, जिसमें सार्वजनिक और निजी क्षेत्र का मिश्रण है। सार्वजनिक क्षेत्र में भारतीय राजकीय निवेश किया गया और साथ ही आधारभूत सेवाओं आदि जैसे कई क्षेत्रों में निजी क्षेत्र का योगदान रहा।

यह भी उल्लेखनीय है कि औद्योगिक और आर्थिक आवश्यकताओं के लिए तेल पर निर्भरता ने मध्य-पूर्व में तेल समृद्ध अरब देशों से संबंध के विशेष महत्व के अलावा विश्व बाज़ार में स्थिर मूल्य एवं आपूर्ति के लिए भारत कार्यरत है।


एक अलग स्तर पर देश की आर्थिक दशा भारतीय विदेश नीति को एक दिशा प्रदान करते हुए विकसित एवं विकासशील देशों के बीच असमानता को कम करने का तर्क देती है और विकासशील देशों के बीच अधिक आर्थिक सहयोग चाहती है।


नेतृत्व का स्वरूप

किसी भी नेता की व्यक्तिगत योग्यता या क्षमता एक राष्ट्र के भविष्य को एक निश्चित समय में अपने नेतृत्व द्वारा विदेश नीति के स्वरूप को एक निश्चित दिशा प्रदान करती है। 

भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, जिन्होंने भारत की नीति को डेढ़ दशकों से भी ज्यादा समय तक दिशा प्रदान की एक दृष्टिकोण से अंतर्राष्ट्रीयतावादी माने जाते थे और किसी भी समस्या का संकुि और स्व-केंद्रित मार्ग अपनाने के बजाए एक प्रबुद्ध मार्ग को वरीयता देते थे। वे अपने काल के सभी दूरदर्शियों में सबसे महान माने जाते थे। स्वाभाविक है कि इस काल में भारत की विदेश नीति में विश्व शांति और निरस्त्रीकरण के संबंध में राष्ट्रों के सौहार्द के सामूहिक हित के लिए प्रतिबद्ध थी। पंचशील का सिद्धांत विभिन्न देशों की समस्याओं के समाधान का एक विशिष्ट नेहरूवादी दृष्टिकोण का प्रतिरूप था।


पंडित जवाहरलाल नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी का प्रभाव बिल्कुल विपरीत था। स्वभावव वह बहुत प्रभावशाली एवं दृढ महिला थी। राष्ट्रीय हित की अनिवार्य आवश्यकताओं के प्रति उनकी प्रकृति व्यावहारिक एवं संवेदनशील थी जिसने विदेश नीति को आदर्शवाद की जगह दोबारा यथार्थवाद के मार्ग की ओर अग्रसर किया। इस तरह भारत की नीति को बांगलादेश की स्वाधीनता, परमाणु अप्रसार संधि की अस्वीकृति तथा पूर्व सोवियत संघ से प्रगाढ़ संबंध के परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए। दूसरी ओर, उदारवादी गुणों के लिए विख्यात अटल बिहारी वाजपेयी ने पाकिस्तान और अमेरिका के साथ व्यस्त रखने की नीति को प्रभावित किया।


निष्कर्ष

जैसा कि उल्लेख किया गया है कि विदेश नीति के कई निर्धारकों में जो प्रासंगिक तत्व हैं, वे हैं भारत का भौगोलिक आकार, स्थिति, ऐतिहासिक अनुभव एवं परंपरा, साथ ही नेतृत्व का व्यक्तित्व, देश का पड़ोसियों एवं अन्य देशों के साथ संबंध। ये निर्धारक विदेश नीति के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। संक्षेप में कहें तो , भारत ने अपनी विदेश नीति का निर्माण और उसे कार्यान्वयन बड़ी कुशलता से किया है, जिसे पूरे देश की सहमति प्राप्त है और जिसने देश को शांतिप्रिय, परिपक्व, लोकतांत्रिक एवं अंतर्राष्ट्रीय मामलों में विधिपालक के रूप में प्रस्तुत किया है।

Source:- India_and_the_World_book_mpse-001_ignou

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