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क्षेत्रीय नेताओं व राजनीतिक दलों के बीच समन्वय प्रक्रिया ध्यानाकर्षक बन गयी। इनमें से कुछ नेताओं ने राष्ट्रीय स्तर के नेताओं की अर्हता प्राप्त कर ली। इन नेताओं ने अपनी शक्ति क्षेत्रीय/राज्यीय राजनीति (राष्ट्रीय राजनीति की योग्यता प्राप्त कर लेने के बावजूद) से ही निष्कर्षित की और क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का नेतृत्व किया। आपातकाल लागू किए जाने ने अनेक राज्यीय व राष्ट्रीय नेताओं व दलों अवसर प्रदान किया कि वे प्रभुत्व वाली कांग्रेस के खिलाफ एक साथ खड़े हों। जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकारों ने केन्द्र व राज्यों, दोनों में कुछ कदम उठाये जिनमें राज्यीय राजनीति की गूँज सुनाई दी। मंडल आयोग की नियुक्ति और बिहार व उत्तर प्रदेश में पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण लागू किए जाने ने नए रुझान पैदा किए जो कि राज्यीय के साथ-साथ राष्ट्रीय राजनीति के लिए महत्त्वपूर्ण थे।
राज्य स्तरीय नेताओं व राजनीतिक दलों ने न सिर्फ इंदिरा गांधी के प्रतीक वाली कांग्रेस के नेतृत्व एवं संगठन को चुनौती दी, बल्कि केन्द्र-राज्य संबंधों में राज्यों के लिए एक अधिक युक्तियुक्त स्थिति भी प्राप्त करने का प्रयास किया। साठ के दशकांत से अस्सी के दशकारंभ तक केन्द्र-राज्य संबंधों को सुधारने के लिए विपक्षी नेताओं की बैठकें, राजमन्नार आयोग की नियुक्ति, पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा का संकल्प तथा 1983 में सरकारिया आयोग की नियुक्ति, आदि क्षेत्रीय राजनीतिक ताकतों के बढ़ते महत्त्व के सबसे महत्पूर्ण उदाहरण रहे। सत्तर के दशक में कांग्रेस के नेतृत्व व इंदिरा गाँधी को जे पी आन्दोलन व गुजरात आन्दोलन द्वारा चुनौती पेश की गई। क्षेत्रीय ताकतों, जे पी आन्दोलन तथा इंदिरा गाँधी के विरुद्ध इलाहाबाद उच्च न्यायालय के अभिनिर्णय संबंधी चुनौती को झेल पाने में अक्षम केन्द्र ने बीस महीनों (1975-1977) के लिए देश में आपातकाल लागू कर दिया। आपातकाल-पश्चात् युग में चरण सिंह जैसे क्षेत्रीय नेताओं का राष्ट्रीय राजनीति की ओर उन्नयन देखा गया। इसके साथ ही, बिहार में कर्पूरी ठाकुर, हरियाणा में देवी लाल, उत्तर प्रदेश में तथा अनेक दक्षिण भारतीय राज्यों में रामनरेश यादव और फिर मुलायम सिंह यादव जैसे राज्य स्तर के नेतागण केन्द्र की राजनीति में अपने कार्यक्रमों को दस्तदाज करने लगे।