प्रस्तावना
नेपाल की करनाली-चीसापानी जलविद्युत परियोजना से एनरॉन का हट जाना एक गलत नीतिगत निर्णय के खिलाफ सामाजिक प्रतिरोध का एक आदर्श उदाहरण है। लगभग दो वर्षों तक पीछे लगे रहने के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका की बड़ी गैस तथा ऊर्जा कंपनी एनरॉन कॉर्प अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय तथा विद्युत बाजारों में बदलते रुझानों का हवाला देते हुए 1998 में इस परियोजना से यह धमाकेदार फैसला तब आया जब 10,800 मेगावॉट की करनाली परियोजना के सर्वेक्षण के लिए गई। एनरॉन का लाइसेंस दिए जाने का अनुरोध किए उसे चार महीने हो गए थे। सितम्बर 1996 में एनरॉन ने भारत और चीन को बिजली निर्यात करने के इरादे से परियोजना को विकसित करने के लिए छ से नौ अरब अमेरिकी डॉलर के निवेश का प्रस्ताव रखा था।
एनरॉन की इस गाथा में ग्लोबल (वैश्विक और स्थानीय) अर्थात् वैश्विक और स्थानीय के लिए अनेक प्रासंगिक सबक हैं। स्थानीय स्तर पर, नेपाल में कम्पनी का पहला प्रयास ही क्षतिकारक था। इतनी बड़ी परियोजना एक कमजोर आर्थिक आचार, संस्थागत क्षमता और बिगड़ते राजनीतिक संदर्भ वाले देश में कैसे खड़ी की जाएगी। यहाँ राष्ट्रवाद जैसी कोई बात नहीं है, यह तो सीधी-सादी सच्चाई है। फिर जलविद्युत संयंत्र बनाने का कम्पनी का कोई अनुभव भी नहीं था। शायद चतुर अधिशासी अपने निगमित अस्तित्व की आधारशिला के रूप में कार्य संस्कृति और पेशेवर अंदाज का टीमटाम दिखाना चाहते थे, और 2001 के अंतिम महीनों तक तो कम से कम यही दिखता था कम्पनी का यह दिखावा बिल्कुल धोखा देने वाला था।
मूल रूप में तो एनरॉन एक निगम की मृगमरीचिका ही थी जो जनता को मूर्ख बनाने के लिए खड़ी की गई थी और इसके नेताओं ने अपने आपको तो समृद्ध कर लिया जबकि कम्पनी भरभरा कर बैठ गई। प्रत्येक समस्या के प्रति इस कम्पनी का यही समाधान था कि वित्तीय और राजनीतिक प्रभाव के बल पर अपना रास्ता बनाते चलो। इसके प्रबंधकों से कहा गया था कि वहाँ जाओ और हासिल करो । और उन्होंने ऐसा करने के लिए खेल के सारे नियमों का उल्लंघन कर दिया। सवालों को दबा दिया गया और कम्पनी की अवैध माँगों के लिए जगह बनाने के उद्देश्य से भारत और नेपाल दोनों ही देशों, के राजनीतिक तंत्रों को धता बता दिया गया कम्पनी इसे जारी रख भी कैसे सकती थी। वह अपने ही घमंड के बोझ तले ताश के महल की तरह ढेर हो गई।
परियोजना के नुकसान
यह परियोजना लंबे अरसे से विवादों के घेरे में रही हैं और एशिया और पश्चिम दोनों के ही पर्यावरणविदों और संरक्षण संगठनों ने इस तरह के विशाल बाँध बनाने के खिलाफ दमदार तर्क रखे हैं। उन्होंने ऊँध बाँध और बैराज की परियोजनाओं का विरोध किया है क्योंकि उनके निर्माण से नदी क्षेत्र में रहने वाले लोगों के लिए बहुत खतरा पैदा होता है जिनका अस्तित्व पहले से ही खतरे में है। जहाँ एक नदी के प्राकृतिक प्रवाह को नियंत्रित करने के आर्थिक और राजनीतिक लाभ हैं जिनमें स्वच्छ अपेक्षाकृत सस्ती और भरोसे लायक जल विद्युत बनाना और सिंचाई तथा उद्योग के लिए पूरे साल भर ताजा जल उपलब्ध कराना शामिल है वहीं इन लाभों को उस बड़ी पर्यावरणीय कीमत के बरक्स रखकर देखना चाहिए जो इसके बदले में हर हाल में चुकानी ही होगी।
अगर नदी पर्यावरण में बहुत अधिक फेर-बदल किया जाए तो उससे जैव-विविधता का भारी नुकसान ही होना है जिससे पूरी नदी पर्यावरण व्यवस्था के लिए खतरा पैदा हो जाएगा, जिसमें मछलियों की किस्में उसका अभिन्न अंग हैं। बाँध केवल पानी के बहाव और गाद में ही बदलाव नहीं करते जिससे नदियों का पूरा स्वरूप ही बदल जाता है बल्कि वे नकली 'अवरोधक' भी बना देते हैं, और इसके चलते पहले से ही संकटग्रस्त मछलियों और अन्य जलजीवों में भी विभाजन हो जाता है और वे अलग-थलग पड़ जाते हैं। मछलियों और उनके शिकार जीवों के प्रवास का प्राकृतिक स्वरूप हमेशा के लिए बदल जाता है, और इसके परिणाम बहुत विनाशकारी भी हो सकते हैं।
करनाली नदी में सूसू प्रजाति की अंतिम शेष आबादी पाई जाती है और उनमें आनुवंशिक दृष्टि से सक्षम काफी मछलियाँ हो सकती हैं। यदि चीसापानी परियोजना चालू होती है जिसकी अभी भी संभावना है हालांकि अभी तक किसी अन्य ने इसमें रुचि नहीं दिखाई है तो इससे इस संकटग्रस्त प्रजाति का भविष्य निश्चय ही अवरुद्ध हो जाएगा।
निष्कर्ष
नेपाल के निर्णय करने वाले और राय बनाने वाले प्रभावशाली वर्गों की इस परियोजना की खूबियों पर आम राय को देखते हुए देश में प्रश्न उठाने और चिंता जताने का काम असंतुष्ट नागरिक समाज समूहों पर आ गया था। ये चिंताएँ विशुद्ध रूप में स्थानीय नहीं थीं। इसी तरह के प्रश्न अंतर्राष्ट्रीय हलकों में भी उठाए जा रहे हैं।
1990 में समाप्त होने वाले पंचायत युग से, नेपाल के विकास की तुलना निर्यात प्रेरित विद्युत परियोजनाओं से की जाती थी। लोकतंत्र के दौर में विकास की परिभाषा में और बदलाव नहीं हुआ। एक नीति का अनुसरण करने और बाकी तमाम बातों को दरकिनार करने के चक्कर में राजनीति स्वयं अपनी क्षरण कर चुकी थी। सत्ता में बैठे किसी भी व्यक्ति ने यह सोचने का कष्ट नहीं उठाया कि अनुचित लाभ कमाने का जिस निजी कम्पनी का इतिहास रहा है, वह देश की अर्थव्यवस्था को उन्नत करने में क्यों और कैसे सहायक होगी। लेकिन एनरॉन स्वयं ही समय रहते ढेर हो गई।
Source:-
Globalization_and_Environment_book_med-008_ignou