राज्यीय राजनीति पचास से साठ का दशक (State Politics Fifties to Sixties)

स्वतंत्रता पश्चात् प्रथम दो दशकों में राज्यीय राजनीति केन्द्र के प्रभाव में ही अंकुरित हुई, जिसने भारत में राष्ट्र-राज्य निर्माण के अनुशीलन पर ध्यान केन्द्रित किया। इस अवधि में विकास के नेहरूवादी आदर्श और कांग्रेस के एक-दलीय प्रभुत्व ने ही भारत में राजनीति को अभिव्यक्ति प्रदान की। राज्यीय राजनीति मुख्य रूप से राष्ट्रीय राजनीति का ही प्रतिरूप थी। केन्द्र सरकार भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में एक प्रभावशाली स्थिति रखती थी, जिसमें कि राज्यीय राजनीति को दूसरा स्थान प्राप्त था। केन्द्र के दिशानिर्देश पर राज्य सरकारों ने अनेक कदम उठाये ताकि राष्ट्र निर्माण की दिशा में योगदान मिले जैसे भूमि सुधार और सामुदायिक विकास कार्यक्रम। केन्द्र में और बहुत से राज्यों में सत्ता कांग्रेस पार्टी के पास थी। राज्यों में साम्प्रदायिक हितों का प्रतिनिधित्व करती कांग्रेस के भीतर विभिन्न स्वार्थी गुट राष्ट्रीय स्तर पर स्वार्थी दल नेतृत्व के उपांग थे। यह तथ्य कि केन्द्र व अनेक राज्यों में प्रबल दल का ही बोल-बाला रहता था, ने इसके साथ ही यह मन में बैठा दिया कि राज्यों व केन्द्र में राजनीति का एक सर्वमान्य प्रतिमान है। राज्यपाल, केन्द्र में अनुकूल सरकारों की यथा नियुक्तियों के रूप में, कुछ एक को छोड़कर, निर्विवादात्मक ही रहते थे। निस्संदेह, यह एक प्रभावी प्रतिमान था। 


परन्तु इसके साथ ही, राज्यीय राजनीति के भीतर एक ही समय में असम्मत प्रतिमान भी सामने आये। इस घटनाक्रम ने राजनीति के प्रमुख प्रतिमान को चुनौती दी यथा, कांग्रेस की प्रमुख स्थिति और राज्यीय राजनीति की गौण अथवा द्वितीयक स्थिति स्वतंत्रताप्रप्ति के कुछ ही वर्षों के भीतर उत्तर-पूर्वी भारत में नागा और मिजो विद्रोह विप्लव शुरू हो गए, जम्मू-कश्मीर में जनमत मोर्चा आन्दोलन शुरू हो गया और दक्षिण भारत में राज्यों के पुनर्गठन की माँग उठायी गयी। यहाँ तक कि कांग्रेस से भिन्न वैचारिक धारणा रखने वाले दलों भी राज्यों ने की राजनीति में इस दौरान महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। बिहार, उत्तर प्रदेश, केरल व पश्चिम बंगाल में समाजवादियों व वामपंथ ने मिलकर, उत्तर भारतीय राज्यों में जनसंघ ने और पंजाब में अकाली दल ने लोगों को कांग्रेस के खिलाफ विभिन्न मुद्दों पर संघटित किया। इस घटनाक्रम ने राज्यीय राजनीति के एक ऐसे प्रतिमान हेतु तान छेड़ी जो निकट भविष्य में भारत में उदय होने को या महाराष्ट्र व उत्तर प्रदेश में आर पी.आई. के नेतृत्व में दलित आन्दोलन, और महाराष्ट्र में दलित पंथेर; उत्तर भारत में जन संघ, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व उनके संबद्ध दलों के गौ-रक्षा आन्दोलन; हिन्दी भाषा के प्रसार हेतु समाजवादी आन्दोलन तथा तमिलनाडु में हिन्दी भाषा थोपे जाने का विरोध व भारत से मद्रास / तमिलनाडु के संबंध-विच्छेद हेतु माँग राज्यीय राजनीति के प्रतिमानों हेतु नृजातीय आयामों के आरंभिक उदाहरण हैं। 



कांग्रेस के आधिपत्य को गुजरात व राजस्थान में 'स्वतंत्र' जैसी रूढ़िवादी पार्टियों द्वारा भी चुनौती पेश की गई। इस घटनाक्रम ने सेलिग हैरिसन को 1950 के दशक को "सर्वाधिक खतरनाक दशक" पुकारने के लिए प्रेरित किया। राज्यीय राजनीति के प्रभावी प्रतिमान को कांग्रेस के भीतर तक से चुनौती पेश की गई। कांग्रेस के भीतर स्वार्थी गुटों के नेतागण अपने-अपने सामाजिक आधार तैयार करने में पीछे नहीं रहे। कांग्रेस के सदस्य रहते हुए भी उन्होंने अपने-अपने राज्यों में अपने स्वयं के आधारों को मजबूत किया। इसका परिणाम कार्यत हुआ विभिन्न स्वार्थी गुट नेताओं के बीच आरोप-प्रत्यारोपों का आदान-प्रदान। चौधरी चरण सिंह का उदाहरण यहाँ सबसे सटीक बैठता है। आप कांग्रेस में रहते-रहते, उत्तर प्रदेश के मझले व पिछड़े वर्गों के भीतर अपने लिए एक आधार पहले ही तैयार कर चुके थे। चरण सिंह व अन्य कांग्रेसी नेताओं के बीच गुटबाजी की लड़ाई का परिणाम हुआ - उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का विभाजन और उत्तर भारतीय राज्यों की राजनीति में एक सर्वथा सशक्त क्षेत्रीय व ग्रामीण दल का उदय। इस प्रतिमान को अभिव्यक्ति मिली 1967 में हुए आम चुनावों में अनेक राज्यों में कांग्रेस की हार तथा 1969 में गठबंधन सरकारों के गठन के रूप में। इसने भारतीय संघ के राज्यों में राजनीति की एक नई विचारधारा को जन्म दिया।

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