आपिको आंदोलन (Appiko Movement) का लक्ष्य पारिस्थितिकी और उष्णकटिबंधीय वन संपदा से संपन्न दक्षिण भारत के पश्चिमी घाटों के संसाधनों की सुरक्षा करना था, जिसमें सजल सदाबहार वन से लेकर गरान दलदल तक आता है जिसकी सुरक्षा और संरक्षण के लिए भारी प्रयास करने की आवश्यकता है। घाटों में लगभग 4,050 फूलदार पौधों की पहचान की गई है। इस क्षेत्र में कृषि के लिए विविध किस्मों के संवर्धित पौधों वाली मूल्यवान आनुवंशिक सामग्री भी है। स्थानीय लोग घाटों के पर्यावरणीय संसाधनों पर निर्भर हैं। लोग क्षेत्र के धान और मसालों जैसे कृषि उत्पादों पर भी निर्भर हैं। तटीय पट्टी में मछली, नारियल के कुज और काजू के बागान जैसे संसाधन पाए जाते हैं जो आय के अच्छे खासे स्रोत हैं मिश्रित खेती में फसल और पशुधन का मिश्रण होता है। ईंधन, पशुओं का चारा और बिछाली, हरी खाद, बाड़, निर्माण सामग्री विपणन के लिए काष्ठेतर वनोपजों और औषधियों आदि वन संसाधनों की अपार माँग है।
उत्तर कन्नड़ क्षेत्र में आजीविका का संकट आधुनिकीकरण और विकास को अपनाने से शुरू हुआ जिससे भूमिहीनता की स्थिति बढ़ती चली गई। वनों के हस्तांतरण से स्थानीय निवासियों के उन तक पहुँच के अधिकार छिन गए हैं। वाणिज्यीकृत संसाधनों के तौर पर वनों के उपयोग के परिणामस्वरूप ये स्थितियाँ बनी हैं सरकारी और निजी उद्योग को (विशेषकर कागज तथा प्लाईवुड उद्योगों के लिए) रियायती ठेकों के अंतर्गत काष्ठ की बड़े पैमाने पर निकासी, सागौन, पाटलकाष्ठ और चंदन जैसी मूल्यवान लकड़ी की तस्करी, प्राकृतिक वनों के स्थान पर सागौन और नीलगिरि का एकधान्य रोपण, और औद्योगिक विकास कार्यों के लिए वनों की सफाई।
इसी संदर्भ में आपिको आंदोलन की शुरुआत हुई थी। यह सरकार की व्यापारिक वन नीति का जवाब था। आंदोलन का लक्ष्य था संसाधनों का संरक्षण और जल धारण और भूमि कटान की रोकथाम। चिपको आंदोलन की तर्ज पर सलकानी गाँव के युवाओं द्वारा चलाया गया आपिका चालूवाली (Appika Cjaluvali) ऐसा ही एक आंदोलन था। ठेकेदार जिन पेड़ों को काटने के लिए चिह्नित करते, स्थानीय युवा उनसे चिपक कर खड़े हो जाते थे, और इस तरह अंत में पेड़ काटने का आदेश वापस लेना पड़ता था। यह आंदोलन तेज़ी से अन्य जिलों में भी फैल गया और इस तरह गाँव वालों में पश्चिमी घाटों के प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के महत्व के प्रति जागरूकता पैदा हुई।
Source:-
Globalization_and_Environment_book_med-008_ignou