बहुजन समाज पार्टी और दलित, Bahujan Samaj Party and Dalit, BSP

प्रस्तावना

1984 में कांशीराम द्वारा बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का गठन देश में दलित संघटन एवं राजनीति के इतिहास में एक नई शुरुआत दर्शाता है। बसपा के मुख्य अभिलक्षणों में एक यह तथ्य है कि वह आंशिक रूप से ही सहीं, वहाँ सफल तो हुई (अधिक विशेष रूप से उत्तर भारत में) जहाँ अम्बेडकर और अम्बेडकरवादी पचास से भी अधिक वर्षों तक देश में अपने प्रयोजन में विफल रहे थे। उत्तर भारत में बसपा एक ऐसे समय सफल हुई जब पश्चिमी भारत में दलित राजनीतिक दल अस्तव्यवस्तताओं से ग्रस्त थे। अपने गठन के बाद बसपा न सिर्फ उत्तरी भारत में कुछ राज्यों में अपनी पकड़ ही मजबूत बनाने में सफल रही है अपितु वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण उत्तर प्रदेश राज्य में चुनाव-पूर्व अथवा चुनावोपरांत सहयोगी दलों के साथ सरकारें बनाने में भी सक्षम रही है। यद्यपि ये सरकारें अल्पजीवी ही रहीं, फिर भी ये उल्लेखनीय घटनाएँ हैं क्योंकि इसके दलितों के लिए महत्वपूर्ण निहितार्थ हैं, न सिर्फ उत्तर प्रदेश राज्य में बल्कि देश भर में।



ऐतिहासिक दृष्टि से

गेल ओमवेट ने इस पार्टी के गठन को सुविवेचित बताया है। इसकी जड़ें एक सरकारी कर्मचारी संघ 'दामसेफ' / बेकवॉर्ड एण्ड माइनॉर्टी सेंट्रल एम्प्लोइज फेडरेशन में पाई जाती है। यथा पिछड़े एवं अल्पसंख्यक केन्द्र सरकार कर्मचारी संघ, जिसका गठन 1978 में पंजाब में कांशीराम द्वारा किया गया परन्तु फिर उत्तर प्रदेश तक बढ़ा दिया गया। प्रारम्भत बामसेफ ने महाराष्ट्र में आर. पी. आई. की गतिविधियों का समर्थन किया और अन्य पर्टियों से आने वाले सभी अनुसूचित जाति व अन्य राजनीतिज्ञों के समर्थन का प्रयास किया (चन्द्रा, 2004)। इसका मुख्य उद्देश्य, तथापि, उन दलितों के अभिजात वर्ग को संगठित करना था जिनको भारत सरकार की आरक्षण नीतियों से लाभ पहुँचता था। इस संगठन का गठन अतिमहत्त्वपूर्ण था क्योंकि यही वो संगठन था जो बसपा के लिए प्रारम्भिक संगठनात्मक एवं वित्तीय आधार प्रदान करता था। कांशीराम ने इस आधार पर तर्क प्रस्तुत करने और संगठित करने का प्रयास किया कि उक्त समुदाय की आगे उन्नति तभी हो सकती है जब समग्र समुदाय एक समूह में उठ खड़ा हो। वह यह मानते हुए इस प्रयास में सफल रहे कि 'नब्बे के दशकारंभ में एक दशक से कुछ ही थोडे समय के भीतर 'बामसेफ' की सदस्य संख्या लगभग 2 लाख पहुँच गई (हसन, 2000) | 

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सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण निर्णय जो बसपा की गठन प्रक्रिया के समय लिया गया वो था 1981 में दलित शोषित संघर्ष समाज सीमित, सामान्यतः 'डी-एस-4' के नाम से मशहूर संगठन की स्थापना। इस संगठन का गठन अत्यधिक महत्त्वपूर्ण था, यह मानते हुए कि इसी संगठन के माध्यम से ही उन्होंने समाज के अन्य वर्गों के बीच अपना प्रभाव बढ़ाने का प्रयास किया। इस डी-एस-4 ने, वास्तव में, बसपा के गठन हेतु संगठनात्मक आधार के रूप में काम किया और राजनीतिक मुद्दे उठाये। यह इसने दो महत्त्वपूर्ण तरीकों से किया। एक था - वैचारिक अभियानों के माध्यम से जो कि वे अपने मुखपत्र "दि अप्रैस्ड इण्डियन’’ के साथ चलाते थे, और दूसरा देश भर में सभाओं के आयोजन, रैलियाँ, खासकर साइकिल रैलियाँ, और सामाजिक कार्रवाई कार्यक्रमों के माध्यम से प्रथम के माध्यम से उसने शोषित समुदायों को 'शिक्षित करने, संगठित करने और आन्दोलित करने का प्रयास किया और दूसरे के माध्यम से उसने समाज में दलित जातियों हेतु आत्म-सम्मान व समानता दिलाने का प्रयास किया (सिंह, 2002 ) । डी-एस-4 की गतिविधियाँ 1983 व 1984 में दृश्यमान और बारंबार रहीं, यथा बसपा के गठन से कुछ ही पूर्व अत यह स्पष्ट है कि डी-एस-4 कांशीराम द्वारा बसपा के गठन की अग्रदूत थी और इस अर्थ में बसपा का गठन एक उपयुक्त और विवेचित गठन था। ऐसा प्रतीत होता है कि बसपा के गठन से पूर्व डी-एस-4 के माध्यम से कांशीराम ने आवश्यक तैयारी का काम किया था।




बसपा के प्रयास

मंच और आधार तय कर कांशीराम ने 14 अप्रैल 1984 को बसपा का उद्घाटन कर दिया। उत्तर प्रदेश में जब उन्होंने पार्टी में शामिल होने के लिए मायावती को राजी कर लिया तो उन्हें एक काम का साथी मिल गया। उत्तर प्रदेश में मायावती का साथ होना बसपा के लिए निर्णायक सिद्ध हुआ क्योंकि इससे पार्टी राज्य में एक भरोसे का नेता प्राप्त कर सकी। मायावती एक चमार परिवार में जन्मी। उन्होंने मेरठ व दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त की और अध्यापन व्यवसाय में रहीं। पूर्णकालिक राजनीतिज्ञ बनने के लिए उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ी। उनका परिवार दरअसल उत्तर प्रदेश में कुछ समय आर.पी.आई. से जुड़ा रहा था।

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कांशीराम ने ऐसा कहा जाता है, सुविवेचित ढंग से एक नयी नृजातीय श्रेणी बनाने का प्रयास किया, यथा बहुजन, जिसमें शामिल थे – अनुसूचित जातियाँ, अनुसूचित जनजातियाँ, अन्य पिछड़े वर्ग तथा धर्मान्तरित अल्पसंख्यक वर्ग (चन्द्रा, 2004)। ऐसा उन्होंने सुविमर्शित ढंग से दिमाग में यह बात रखते हुए किया कि अनुसूचित जातियाँ अकेले उन्हें यथा अभीष्ट सत्ता नहीं दिलवा सकती क्योंकि उनकी संख्या कुल जनसंख्या का लगभग 15 प्रतिशत ही है जो कि देश में कुछ निर्वाचक वर्ग का एक तिहाई मात्र है। भूतपूर्व अछूतों से समर्थनार्थ एक सचेत अपील करते हुए और ब्राह्मण, बनिया, ठाकुर चोर, बाकी सब डी-एस-फोर' जैसे आकर्षक नारों को लेकर बसपा ने उत्तर भारत में दलित वोट बैंक पर एक तत्काल प्रभाव बनाया। उत्तर भारत में दलितों ने परम्परागत रूप से कांग्रेस की पीठ पीछे संघर्ष जगाया परन्तु शीघ्र उसने पाया कि बसपा कांग्रेस के वोट बैंक का अतिक्रमण कर रही है। दिसम्बर 1984 में कराए गए लोकसभा चुनावों में और मार्च 1985 में कराए गए विधान सभा चुनावों में यद्यपि वह अपने द्वारा लड़ी गई राज्य की सभी सीटों पर पराजित हुई, वह लालों वोट हासिल करने में सफल रही थी। अधिक महत्त्वपूर्ण रूप से, वह कांग्रेस के वोट अपनी ओर खींच पाने में सफल रही थी जिसके परिणामस्वरूप 51 सीटें लोकदल को गईं (ओमवेट, 1994)। उसी वर्ष कुछ ही महीनों बाद पंजाब में कराए गए चुनावों में वह अपना प्रदर्शन दोहराने में सक्षम दिखाई दी। उसने वहाँ अकाली दल को प्रतिकूल प्रभाव किया। इस काल में बसपा और डी एस 4 ने देश भर में सहज तरीकों से ही अभियान में भाग लिया और उत्तरी भारत में आगे अपना समर्थनाधार सुदृढ नहीं कर सकीं। अभियान के सहज रूपों में शामिल थे - साइकिल का प्रयोग, विशाल साइकिल व रैलियों के अन्य रूप आयोजित करना और जागरूकता कार्यक्रम। इन अभियानों में बसपा ने समाज में उच्च जातियों के आधिपत्य और देश में अनुसूचित जातियों व अन्य पददलितों की दुर्दशा की तीखी आलोचना का विकल्प चुना। इसने पार्टी की मदद की, उसे विस्तार प्रदान किया और उसका आधार मजबूत किया, इसका प्रमाण था 1987 में इलाहाबाद लोकसभा उपचुनाव बसपा प्रत्याशी के रूप में कांशीराम सुनील शास्त्री के 24 प्रतिशत और विश्वनाथ प्रताप सिंह के 54 प्रतिशत के मुकाबले जनमत का 18 प्रतिशत प्राप्त करने में सक्षम रहे (ओमवेट 1994)। चुनावों में कुल मिलाकर बसपा ने उन सामाजिक समूहों के बीच अपनी वर्धमान लोकप्रियता दर्शायी, जो कि पहले कांग्रेस के पास थी। यही चुनाव था जिसमें बसपा एक प्रमुख राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरी और कांशीराम एक राष्ट्रीय छवि के व्यक्ति बन गए।

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परिणाम

1989 के लोकसभा चुनाव आये और बसपा ने अपने द्वारा लड़े गए 235 लोकसभा चुनावक्षेत्रों में से 24 प्रतिशत अखिल भारतीय मतों के साथ तीन सीटें प्राप्त की। इस प्रभावशाली प्रदर्शन के साथ बसपा डाले गए वोटों के लिहाज से छठी अखिल भारतीय पार्टी बनने में सक्षम हुई। उसने अपनी चुनावी प्रगति जारी रखी और 1997 में चुनाव आयोग द्वारा एक राष्ट्रीय दल के रूप में मान्यता प्राप्त करने में सफल रही। उत्तर प्रदेश में इसको सबसे अधिक लाभ मिला। राज्य विधानसभा में उसकी सीटें 1989 में मिलीं 13 से बढ़कर 1993 में 66 तक पहुँच गयीं। 1996 में कराए गए चुनावों में भी उसे 66 सीटें ही मिलीं. वैसे उसका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन 2002 के चुनावों में रहा जब उसने 97 सीटें प्राप्त की। बसपा का यह प्रदर्शन यह मानते हुए उल्लेखनीय है कि पहले के चुनावों में उसने 66 सीटें प्राप्त की थीं, हालाँकि पार्टी में अनेक विभाजनों के कारण 1998 में यह संख्या अन्त में घटकर 43 रह गयी। राज्य में उसका मत भाग बीस प्रतिशत के आसपास रहा है जो कि काफी प्रभावशाली है। 

Source:-
Social_Movements_and_Politics_in India_book_mpse-007_ignou







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