'दलित' एक मराठी शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ है 'धरती' अथवा 'टूटे हुए खंड' और इसे सबसे पहले महाराष्ट्र - में 'दलित पैन्थर्स' द्वारा प्रचलन में लाया गया जिससे उनका तात्पर्य था अनुसूचित जाति की जनता। तत्पश्चात् इस परिभाषा को व्यापक बनाने के प्रयास में किसी भी दबे-कुचले समूह के लिए इसका प्रयोग किया जाने लगा (चन्द्रा, 2004)। दलित मुख्य रूप से केवल अनुसूचित जातियों का संदर्भ प्रस्तुत करते हैं, यथा वे जातियाँ जो हिन्दू वर्ण व्यवस्था में वर्ण-व्यवस्था से बाहर थीं और उन्हें 'अवर्ण' अथवा अस्पृश्य अतिशूद्रों के रूप में जाना जाता था। उन्हें अशुद्ध माना जाता था और जाति पदानुक्रम में रखा जाता था जिसने असमानता को जिंदा रखा।
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दलित भारत की जनसंख्या के 15 प्रतिशत है और आर्थिक एवं सामाजिक रूप से भारतीय समाज के निम्नतर श्रेणियों से ताल्लुक रखते हैं। 1991 की जनगणना के अनुसार उनकी संख्या 13.8 करोड़ थी, यथा कुल संख्या 15.8 प्रतिशत। 2001 की जनगणना के अनुसार वे 1ए666 करोड़ से भी अधिक, यथा समग्र जनसंख्या के लगभग 16.2 प्रतिशत हैं। वे पूरे देश भर में फैले हैं, तथापि उत्तर प्रदेश, पंजाब, बिहार, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, राजस्थान, उड़ीसा व महाराष्ट्र जैसे कुछ राज्यों में वे अधिक संघनित हैं। उनकी आबादी तमाम संसदीय एवं विधानसभा चुनावक्षेत्रों में फैली हुई है, परन्तु समस्त देश में ये निर्वाचकगण के लगभग एक तिहाई हैं (चन्द्रा, 2004)।
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दलित न सिर्फ निम्न-जाति श्रेणी से भी ताल्लुक रखते हैं बल्कि वे भारतीय समान के निम्न-वर्ग श्रेणी से भी ताल्लुक रखते हैं। ग्रामीण अर्थव्यवस्था में वे मुख्य रूप से गरीब किसान, बॅटाई-मजदूर तथा कृषि श्रमिक होते हैं। शहरी अर्थव्यवस्था में वे मूल रूप से श्रमजीवी जनसंख्या के अधिकांश का निर्माण करते हैं। अनेक अध्ययन दशति हैं कि समग्र देश में दलितों की दशा गत वर्षों कोई महत्त्वपूर्ण रूप से नहीं बदली (मेण्डलसोन एवं विक्जियानी, 1998), भारत में राज्य ने यद्यपि गरीबोन्मुख नीतियों का परिगलन किया था, जो कि गरीबों की दशा सुधारने पर अभिलक्षित थीं जिनमें एक बड़ा भाग दलित ही थे। मेण्डलसोन एवं विक्जियानी का कहना है कि "स्वतंत्र्योत्तर शासन प्रणाली समाज शोषित वर्ग के लोगों के पक्ष में संसाधनों के योजनाबद्ध पुनर्वितरण को लागू करने में विफल रही है, और वह गरीबों को बुनियादी जरूरतों (स्वास्थ्य शिक्षा एवं सामान्य कल्याण) की आपूर्ति संबंधी किसी सुसंगत, यद्यपि इतर क्रांतिक रणनीति के परिपालन में भी विफल रही है।"
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रक्षात्मक भेदभाव (Pratective Discrimination) नीति के परिणामस्वरूप दलितों के बीच एक अभिजात वर्ग (मुख्य रूप से मध्य वर्ग) का उदय हुआ है। और ये आभिजात्य ही हैं जो सरकारी नीतियों के मुख्य लाभग्राही हैं। जैसा कि डी. एल. शेठ ने लिखा है कि मध्य वर्ग जिसमें मुख्यत: उच्च जातियाँ ही आती थीं, अब निम्न जातियों अथवा दलितों का एक छोटा वर्ग भी आता है (शेठ, 2002 )। इन परिवर्तनों के परिणामस्वरूप समस्त दलित जनसंख्या को अब मोटे तौर से दो भागों में बाँट सकते हैं : वह वर्ग जिसमें लोग अभी तक वैसे ही है; जैसे पहले और एक छोटा, संकुचित वर्ग जिसमें लोग अधिकांश दलित जनसंख्या की अपेक्षा अधिक खुशहाल हैं। इसको, तथापि, एक सकारात्मक परिवर्तन माना जा सकता है क्योंकि दलितों के बीच वो यही वर्ग (मध्य वर्ग) है जिसमें शामिल लोग आज के भारत में अपने संघटन और अधिकार माँग के लिए मुख्य रूप से उत्तरदायी हैं एक अन्य परिवर्तन भी देखा जा सकता है और जो कि उस जातीय भेदभाव का दुराग्रही रूप है जिसको सदियों तक अपनाया जाता रहा परन्तु वर्तमान भारत में व्यवहृत नहीं है।
Source:-
Social_Movements_and_Politics_in India_book_mpse-007_ignou