चिलका बचाओ आंदोलन (Chilka Bachao Andolan)



प्रस्तावना

चिलका झील उड़ीसा के पूर्वी तट पर स्थित है। यह एशिया की सबसे बड़ी प्राकृतिक झील है और अन्तर्राष्ट्रीय महत्व की सजल भूमि के रूप में प्रसिद्ध है। हाल की “ विकास सम्बन्धी " गतिविधियों के कारण तेज़ी से गाद बन रही है, झील के पानी की लवणता कम हो रही है, और पानी की गहराई भी धीरे - धीरे कम होती जा रही है। यह उद्योगों की बढ़ती संख्या का नतीजा है। एक सौंदर्य प्रसाधन बनाने वाली क्षारीय इकाई अपने द्रवों को सीधे झील में छोड़ती है, जिसके कारण झील की पारिस्थितिकीय व्यवस्था में पारे का जमाव हो गया है। इसके अतिरिक्त, वनोन्मूलन भूमि कटाव हुआ और झील में गाद बनी। टाटा समूह ने झींगा मछली का काम फैलाया तो समस्या और बढ़ गई। इन सारी स्थितियों का मिला - जुला असर यह हुआ कि झील का जीवन कम हो गया। यह परिणाम है निर्यात नीति विकास से अभिप्रेरित विकास की दिशा को प्रोत्साहन अथवा संरक्षण देने का, जिसमें अपार महत्व की एक झील के पर्यावरणीय स्तर और सुरक्षा की और कोई ध्यान ही नहीं है।
 

ऐतिहासिक दृष्टि से

इस झील का लंबा इतिहास रहा है और इसने कई सत्ता परिवर्तन देखे हैं। स्थानीय मछुआरे इस झील पर निर्भर थे और उन्हें इस पर पारंपरिक अधिकार प्राप्त थे। किन्तु वहाँ बिचौलियों का एक समूह भी था जो इन मछुआरों का शोषण करता था। 1950 के दशक में मछुआरों को इन बिचौलियों के चंगुल से छुड़ाने का प्रयास हुआ था। उन्हें एक सहकारिता के झंडे तले संगठित किया गया। इससे मछुआरों की दशा सुधारने में मदद मिली। किन्तु यह अधिक समय तक नहीं चला। 1970 के दशक के प्रारंभ तक झींगा निर्यात की एक महत्वपूर्ण वस्तु बन गई और इससे बाहरी लोगों को यहाँ आने का प्रलोभन मिला और चिलका झील के संकट की यहीं से शुरुआत हो गई। यह वही चिलका झील थी जिसपर मछुआरे लोग अपनी रोजी - रोटी के लिए निर्भर थे। 1980 के दशक तक झील की मछलियों पर बाहरी लोगों का कब्जा हो गया। इन बाहरी लोगों ने ताकत और पैसे के बल पर स्थानीय मछुआरों को धीरे धीरे संसाधनों से वंचित कर दिया।


सरकारी नीति और का विरोध

कृषि मंत्रालय ने 1984 में एक मंच गठित करने का असफल प्रयास किया और भारत के एक प्रमुख औद्योगिक समूह टाटा का प्रवेश हो गया। उड़ीसा सरकार ने झील का सार्वजनिक नीलाम कर दिया था और इस तरह आर्थिक विकास के नाम पर, इस क्षेत्र में बड़े व्यापारिक घरानों का प्रवेश हो गया। दरअसल, केन्द्र और राज्य सरकारों ने निर्यात नीति विकास के एक हिस्से के तौर पर उत्पादन व्यवस्था के आधुनिकीकरण को प्रोत्साहित करना इस आधार पर जारी रखा कि इससे बहुत सारी विदेशी मुद्रा अर्जित की जा सकती है। किन्तु, आधुनिक तरीकों और विशाल धनराशि का इस क्षेत्र पर उलटा असर हुआ और चिलका बचाओ आन्दोलन खड़ा हो गया। 
आसपास के गाँव, 1990 के दशक के प्रारंभ तक, सरकारी नीति का विरोध शुरू कर चुके थे। झील की सेहत का सवाल महत्वपूर्ण हो गया। इन सवालों को एक जन संगठन - उड़ीसा कृषक महासंघ - ने उठाया। चिलका बचाओ आंदोलन ने पर्यावरणीय सुरक्षा और गरीबों की आजीविका का सवाल उठाया। बड़े व्यापारिक समूहों द्वारा भाड़े पर लिए गए निजी समूहों ने आंदोलनकारियों और लोगों को आतंकित करना शुरू कर दिया। इन धमकियों के बावजूद, एक सशक्त जन आंदोलन उठ खड़ा हुआ। सभी जगहों के मछुआरों ने एकजुटता दिखाई और वे इस आंदोलन में शरीक हो गए। विभिन्न राजनीतिक दलों ने भी आंदोलन को अपना समर्थन दिया। इसकी पराकाष्ठास्वरूप, एक व्यापक आधार वाला आंदोलन बन गया और 1992 में राज्य स्तर का एक विशाल आंदोलन हुआ। अंततः भारत सरकार ने हस्तक्षेप किया, और आधी दूरी तय कर चुकी परियोजना रोक दी गई क्योंकि पर्यावरण तथा वन मंत्रालय ने उसे हरी झंडी नहीं दी। पाँच से भी अधिक वर्षों बाद टाटा समूह को अपना हाथ वापस खींचना पड़ा।


निष्कर्ष

चिलका बचाओ आंदोलन एक अच्छा घटनाक्रम है और इससे कई अंतरंग जानकारियाँ मिलती हैं। पहली, एक स्थानीय संघर्ष ने एक बड़े आंदोलन का रूप ले लिया, क्योंकि इसका ध्यान विकास के मॉडल और विकास की प्रकृति पर केन्द्रित था और इसने राज्य और बड़े व्यापारिक घरानों का सफलतापूर्वक पर्दाफाश किया था। दूसरी, इस जन - आंदोलन में पर्यावरण के मुद्दे शामिल होने के कारण इसे अंतर्राष्ट्रीय समर्थन मिला। तीसरी, इसने जनजुटाव के माध्यम से भूमंडलीकरण की प्रक्रिया को चुनौती दी है। चौथी, इसने सतत विकास और सामाजिक न्याय के परस्पर जैविक सम्बन्ध को उजागर कर दिया है।

Source:-
Globalization_and_Environment_book_med-008_ignou







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