बीज आत्महत्याएँ , Seed Suicides





प्रस्तावना

भारतीय कृषि क्षेत्र एक संकट का सामना कर रहा है जिसे बीज आत्महत्याएँ (Seed Suicides) कहा जा रहा है। एक दशक से भी अधिक समय से, खेतिहर समुदाय बहुराष्ट्रीय बीज कम्पनियों के खिलाफ लड़ रहा है जिन्होंने गरीब किसानों को खेती पर बड़ी रकम लगाने के लिए बाध्य कर दिया था। दूसरी ओर, सैकड़ों किसान हर साल आत्महत्या कर रहे हैं। दक्षिण भारत के एक राज्य आंध्र प्रदेश में भूमंडलीकरण पूरे जोर पर है और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को खुली छूट मिली हुई है। वहाँ तीन साल के अंदर एक हजार से भी अधिक किसानों ने आत्महत्या की। पूरे देश में किसान आत्महत्या जैसा हताशापूर्ण कदम उठा रहे हैं, और इसका कारण है भूमंडलीकरण और पूँजी-गहन कृषि के प्रसार के परिणामस्वरूप उन पर बनने वाले नए दबाव बीज तथा रसायन उद्योगों द्वारा विकसित की गई चतुराई भरी कार्यनीतियों से जुड़े भारी मुनाफों के वादे में भारी मुनाफों का प्रलोभन और महँगे सामान खरीदने के लिए आसान ऋण शामिल हैं। किन्तु भूमंडलीकरण की वास्तविकता तो निगमों के प्रचार से और विश्व बैंक विश्व व्यापार संगठन के विशेषज्ञों और विभिन्न मंत्रालयों के अर्थशास्त्रियों द्वारा प्रस्तावित कृषि सामग्री और व्यापारिक उदारीकरण के वादों से भिन्न है।


वंदना शिवा

प्रमुख भारतीय पर्यावरणविद वंदना शिवा का कहना है कि "किसानों द्वारा आत्महत्या करने की महामारी वह दबाव है जो भूमंडलीकरण के द्वारा भारतीय कृषि और भारतीय कृषकों पर डाल दिया गया है। कर्ज और खराब फसल का होना ही मुख्य कारण है कि पूरे ग्रामीण भारत में किसान आत्महत्याएँ कर रहे हैं। कर्ज और फसल की बर्बादी ही औद्योगिक कृषि के उस निगमी मॉडल का परिणाम भी हैं जिसे भूमंडलीकरण के माध्यम से भारत में लागू किया जा रहा है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा प्रोत्साहित कृषि-पूँजी गहन अथवा पूँजी-केन्द्रित है और उससे बीजों और कृषि रसायनों जैसी महेंगी आंतरिक सामग्री की खरीद के लिए भारी कर्ज की स्थिति बनती है। यह पर्यावरण की दृष्टि से भी संवेदनशील है क्योंकि यह प्रचलित की गई किस्मों के एक-धान्य (मोनॉकएचर) पर और गहन कृषि के गैर-सतत चलन पर आधारित है।"



आत्महत्या के बीज (Seeds of Suicide)

अपने अध्ययन "आत्महत्या के बीज" (Seeds of Suicide) में वंदना शिवा ने भारतीय कृषि और भारतीय कृषकों पर व्यापारिक उदारीकरण के प्रभाव का विश्लेषण किया है। यह अध्ययन भूमंडलीकरण की सामाजिक और पारिस्थितिकीय लागतों का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करता है। आंध्र प्रदेश की त्रासदी का अध्ययन गैर-सतत कृषि के भूमंडलीकरण की इन ऊँची सामाजिक और पारिस्थितिकीय लागतों को रेखांकित करता है। ये इस राज्य के कपास उगाने वाले क्षेत्रों तक सीमित नहीं है बल्कि इनका अनुभव सभी क्षेत्रों की व्यापारिक स्तर पर और रासायनिक तरीके से उगाई गई फसलों में किया गया है। जहाँ भूमंडलीकरण के लाभ बढ़ते बाजारों के माध्यम से बीज और रसायन निगमों को मिलते हैं, वहीं लागत और जोखिम पूरे के पूरे छोटे किसानों और भूमिहीन कृषकों के खाते में जाते हैं।

फसल खराब होने के जोखिम को भूमंडलीकरण ने जिन तरीकों से बढ़ाया है, उनमें दो सर्वाधिक महत्वपूर्ण तरीके हैं — पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील संकर बीजों का चलन शुरू करना और कीटनाशक जैसी कृषि - रासायनिक सामग्री पर और अधिक निर्भरता, जो संकर किस्मों के उपयोग से जुड़ी है।

व्यापारिक उदारीकरण के अंतर्गत बीज क्षेत्रक के निजीकरण के परिणामस्वरूप फसलों के स्वरूप में परिवर्तन हुआ है और उसमें पोलीकल्चर की जगह मोनोकल्चर (एक-धान्य) का और खुली परागित किस्मों की जगह संकर किस्मों का उपयोग हुआ है। आंध्र प्रदेश के वारंगल जिले में यह परिवर्तन बहुत तेजी से किया गया है और वहाँ बाजरा, दाल और तिलहन पर आधारित एक मिश्रित कृषि व्यवस्था के स्थान पर संकर कपास के एक-धान्य को अपना लिया गया है।


कपास की फसल खराब होने का मुख्य कारण कीटनाशकों का अथवा नकली कीटनाशकों का अत्यधिक उपयोग रहा है। बहरहाल, कीटनाशकों के इस्तेमाल का गहरा नाता संकर बीजों से है। कीटनाशक तब आवश्यक हो जाते हैं जब फसल की किस्में और उन्हें उगाने के तरीके कीट आक्रमण के प्रति संवेदनशील होते हैं। संकर बीजों से अधिक पैदावार होने की संभावना होती है, किन्तु उनसे फसल नष्ट होने का ख़तरा भी अधिक होता है क्योंकि जैसा कि आंध्र प्रदेश का अनुभव बताता है, ये बीज कीटों और रोगों की चपेट में भी अधिक जल्दी आ जाते हैं। एक-धान्य कीट आक्रमणों के प्रति संवेदनशीलता को भी और बढ़ा देते हैं, क्योंकि जब उसी किस्म की वही फसल बार-बार साल-दर-साल बड़े क्षेत्र में उगाई जाती है, तो उससे कीटों के पैदा होने की संभावना बढ़ जाती है।

इस तरह, कीटों की समस्या फसलों और फसलों के तरीकों की विविधता नष्ट होने के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुई समस्या है। कीट नियंत्रण का सर्वाधिक सतत समाधान है पुनर्जीवित करना । कीट नियंत्रण की ग़ैर-सतत कार्यनीतियों में विविधता को कम करते हुए रासायनिक - कृषि में जैव विविधता को अथवा आनुवंशिक नियतन की व्यवस्था होती है, जो कीटों से होने वाली क्षति से सबसे बड़ा बचाव है।


निष्कर्ष

जैसा कि कपास के संकट से दिखाई देता है, कृषि का भूमंडलीकरण पर्यावरण और किसानों के अस्तित्व दोनों के लिए खतरा पैदा कर रहा है। जैव-विविधता नष्ट हो रही है, कृषि-रसायनों का इस्तेमाल बढ़ रहा है और बढ़ते कर्ज़ के परिणामस्वरूप आत्महत्या की घटनाएँ हो रही हैं। समाज विज्ञानियों ने यह अध्ययन इसलिए किया है ताकि व्यापारिक उदारीकरण के सात वर्षों के प्रभाव का भी जायजा लिया जाए और एक अधिक सतत भविष्य के लिए नीतियों के निर्माण में सहायता भी हो जाए।


Source:- https://unacov.uk/united-nations/
Globalization_and_Environment_book_med-008_ignou


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