भाषाई विविधता का सवाल राष्ट्रीय/राजकीय भाषा और भाषाई प्रांतों की व्यवहार्यता/वाञ्छनीयता पर बहसों के रूप में उभरा। एक वैचारिक स्तर पर कई लोगों को यह स्पष्ट लगता है कि एक 'राष्ट्रीय' या 'राजकीय' भाषा होनी ही चाहिए हालाँकि किसी राष्ट्रीय अथवा शासकीय धर्म की कोई आवश्यकता नहीं है। अंग्रेजी को राजकीय भाषा के रूप में जारी रखने के विषय में क्या कहना है? नेहरू तक ने तर्क दिया था कि यह एक विदेशी भाषा है और अपने राष्ट्र के विशाल जन साधारण द्वारा नहीं जानी जाती। लेकिन उन्होंने अंग्रेजी हटाने के मुद्दे पर नरम रुख अपनाया।
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आमतौर पर तिलक जैसे अनेक राष्ट्रवादियों ने भाषाओं की विविधता को राष्ट्रीय एकता में बाधक पाया और एक आम भाषा की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने सुझाव दिया कि सभी उत्तर भारतीय भाषाओं के लिए - देवनागरी लिपि प्रयोग की जाए। तदोपरांत, कांग्रेस के उत्तर केन्द्रित संघटन और हिन्दू महासभा के प्रभाव ने नागरी लिपि में हिन्दी हेतु योगदान दिया ताकि उसका स्वतंत्र भारत हेतु एक संभावित राष्ट्रीय भाषा के रूप में उत्थान हो सके। गाँधी जी भी हिन्दी को प्रत्साहित किए जाने के इच्छुक थे, खास कर दक्षिण में। परन्तु इस संबंध में दक्षिण का अनुभव जरा हट कर था। 1938 में राजगोपालाचारी, तत्कालीन मद्रास के प्रमुख, ने एक वैकल्पिक विषय के रूप में, चाहे नागरी अथवा उर्दू लिपि में हिन्दी को लागू किया या कहें, इस रूप में कि 'एक पत्ते पर चटनी - खाओ या छोड़ो' । और इस विषय में असफलता ही हाथ लगी कि - प्रोत्साहन उच्च कोटि तक ही न रुका रहे। परन्तु उनके अनुभव ने द्रविड़ संस्कृति पर आर्य व आर्य भाषा थोपने के खिलाफ ई. वी. रामास्वामी उत्तरनैकर के जनप्रिय संघर्ष में अच्छे ढंग से योगदान दिया। इस अनुभव के चलते ही राजा जी ने स्वातंत्र्योत्तर भारत में हिन्दी थोपे जाने का विरोध किया।
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ग्रॉविले ऑस्तें ने उस सीमा के प्रमाण प्रस्तुत किए हैं जहाँ तक कि हिन्दी-समर्थकों को राजकीय भाषा के रूप में हिन्दी अपनाये जाने पर जोर देना था। 'हिन्दी अतिवादियों' ने एक हिन्दी संविधान प्रस्तुत किया जिसको संस्कृतीकरण की वजह से उत्तर भारत के हिन्दी भाषियों तक के लिए समझना मुश्किल पाया गया। ऑस्तें ने लिखा, "एक संस्कृतीकृत अनुवाद न सिर्फ समझने के अनुपयुक्त होगा, दीक्षित व्यक्तियों के एक छोटे से समूह को छोड़कर, बल्कि यह संदेहपूर्ण है कि क्या एक संस्कृतीकृत संविधान संसदीय सरकार और उस ब्रिटिश आम कानून की परम्परा की बुनियाद पर लादा जा सकता है जिसका कि राष्ट्र अभ्यस्त है और जिसे सदन के आम-कानून सदस्य बनाये रखना चाहते हैं। अन्ततः इस मुद्दे पर 1960 के दशक में आन्दोलन होने तक कम से कम पचास वर्षो तक अंग्रेजी के निरंतर प्रयोग पर आम सहमति दिखाई दी।
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उठने वाला एक दूसरा मुद्दा भाषाई प्रांत संबंधी था। चूँकि एकता को पूर्वनियोजित ढंग से व्यर्थ कर देने के लिए अंग्रेजों ने बहु -भाषाई राज्यों का निर्माण कर दिया था, कांग्रेस भाषाई राज्य बनाने जाने हेतु सिद्धांततः सहमत थी। परन्तु नेहरू स्वतंत्रता पश्चात् इस मुद्दे पर ढीले पड़ गए और उसे प्रमुखता पचास के दशक में ही मिल पायी।
Source:-
State_Politics_in_India_book_mpse-008_ignou