दलित आन्दोलन, Dalit Movement


अन्य-पिछड़ी-जाति आन्दोलन व दलित आन्दोलन के उदय ने उच्च जाति प्रभुत्व को चुनौती दी है। राष्ट्रीय संसद और राज्य विधानसभाओं का रंग-ढंग सभी वर्गों से सांसदों व विधायकों के आने के साथ ही बदला है। आरक्षण नीति लागू करने की माँग समाज के इन वर्गों से आने वाले बेरोज़गार युवकों के हितार्थ कुछ नौकरियों मात्र के लिए ही नहीं थी बल्कि उनके द्वारा सरकारी धन की सुपुर्दगी में निभाई जाने वाली निर्याणक भूमिका हेतु भी थी। जब मायावती मुख्यमंत्री बनीं तो उन्होंने मुख्य सचिव, मुख्यमंत्री का निजी सचिव जैसे मुख्य पदों पर आसीन उच्च जाति के अधिकारियों के स्थान पर अनुसूचित जाति के अधिकारियों को बैठा दिया। यही बात बिहार में लालू यादव के सत्ता में आते ही हुई, जहाँ उच्च जाति के अधिकारियों के स्थान पर अन्य पिछड़े वर्गों से ताल्लुक रखने वाले अधिकारियों को लाया गया। 73वें संशोधन द्वारा दिया गया अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों एवं महिलाओं के लिए पंचायती राज संस्थाओं में सीटों का आरक्षण उन संगठनों के खिलाफ एक प्राचीर के रूप में कायम कर सकता है। जिनका छलयोजन केवल ग्रामीण सम्पन्न लोगों के लाभार्थ ही किया जाता है।



अपने मुख्यमंत्रित्व काल में मायावती द्वारा शुरू किए गए महत्त्वपूर्ण कार्यक्रमों में एक थी अम्बेडकर ग्राम विकास योजना, जो कि तीस प्रतिशत दलित जनसंख्या वाले 15,000 अम्बेडकर गाँवों को विकास निधि प्रदान करती थी। परन्तु दलित एवं पिछड़ा वर्ग की अधिकार माँग प्रस्थिति एवं प्रतिष्ठा पर अधिक ध्यान दे रही है और आर्थिक असमानताओं पर कम ज्योतिबा फुले, पेरियार/ ई. वी. रामास्वामी नायकर, अम्बेडकर व साहू महाराज जैसे गैर-ब्राह्मण नेताओं की मूर्तियाँ लगवाना और हर एक गाँव व कस्बे में अम्बेडकर की प्रतिमाओं की स्थापना का उद्देश्य उच्च जाति के आधिपत्य से लड़ना और दलितों की प्रस्थिति को ऊँचा उठाना ही था। बिहार में राष्ट्रीय जनता दल (रा. ज. द. ) सरकार ने इसी तर्ज पर अनेक विश्वविद्यालयों का नाम बदल कर गैर-उच्च जाति के नेताओं के नाम पर रख दिया। परन्तु ये नेतागण संरचनात्मक असमानता की समस्याओं से अपने आपको जोड़ने में विफल रहे हैं। भूमि सुधार उनकी कार्यसूची में ही नहीं है। वे अपने आप को कमजोर वर्ग के आर्थिक एवं इतर आर्थिक शोषण से भी जोड़ पाने में नाकामयाब रहे हैं। राजद सरकार का अब तक का रिकार्ड तो इस संबंध में और भी बुरा रहा है। वह नक्सलवादी आन्दोलन को पूरी तरह से कानून एवं व्यवस्था की समस्या मानती रही है। यह बात आन्ध्र प्रदेश में पीपल्स वॉर ग्रुप के नेतृत्व वाले आन्दोलन के प्रति तेलुगु देशम् पार्टी सरकार के दृष्टिकोण के विषय में भी सत्य है। वे यह अनुभव करने में असफल हैं कि उनके द्वारा उठाये गए अधिकतर मुद्दों को बेहतर वेतन, प्रतिष्ठा और भूमि सुधारों हेतु माँग के रूप में देखा जा सकता है। राज्य आर्थिक न्याय के प्रति अपनी वचनबद्धता से कतरा कर दूर भागता लगता है।


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तमिलनाडु में द्रविड मुन्नेत्र कड़गम द्वारा अपनाई जाने वाली समंजनकारी राजनीति ने ज्यादा खलबली नहीं मचाई, हालाँकि आरक्षण का स्तर 68 प्रतिशत तक बढ़ा जिसमें अनुसूचित जातियों हेतु 15 प्रतिशत शामिल है। वहाँ की सरकार ने सरकारी नौकरियों में निम्न जातियों से आने वाले लोगों को अवसर प्रदान किए। सरकारी नौकरियों से बहिष्कृत उच्च जातियों के पास रूठने के लिए कोई कारण ही नहीं था क्योंकि उन्हें निजीकृत रूप से स्थापित इंजीनियरिंग एवं मेडिकल कॉलेज चलाने के लिए प्रोत्साहित किया गया। इन संस्थाओं को छात्रों से वसूल की जाने वाली कैपिटेशन फीस (प्रतिव्यक्ति शुल्क) से चलाया जाता था और ये राज्यीय विश्वविद्यालयों से संबद्ध होती थीं। समाज के कमजोर वर्ग हेतु समाज कल्याण उपायों के साथ जोड़कर इस रणनीति ने भूमि सम्पन्न उच्च जातियों अथवा व्यापारी वर्गों के हित पर कोई भी खतरा उत्पन्न किए बगैर सरकार हेतु समर्थन मजबूत किया। केरल समस्त जनता की ओर अभिलक्षित जन-नीतियों से लाभांवित हुआ है इस राज्य में जीवन प्रत्याशा, साक्षरता, और सर्वोपरि दलितों के गौरव में आम सुधार देखा गया है। ऐसा मुख्य रूप से राज्य की सामान्य कल्याणकारी नीतियों के कारण हुआ है। कुल मिलाकर दक्षिण भारत में पिछड़ी जातियों हेतु आरक्षण और समाज कल्याण कार्यक्रमों पर व्यय ने समंजनकारी नीतियों को कायम रखा गया क्योंकि वहाँ अल्पसंख्यक अलाभांवित जातियों को राजनीति में आने और सरकारी नौकरियाँ प्राप्त करने के अवसर प्रदान कर शहरी मध्यवर्ग में शामिल होने की पेशकश की गई थी।

Source:-
Social_Movements_and_Politics_in India_book_mpse-007_ignou






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