भूदान (भूमि दान) आन्दोलन अप्रैल 1951 में आचार्य विनोबा भावे द्वारा शुरू किया गया। इस आंदोलन का उद्देश्य था भूमिधारक वर्गों से अपील करना ताकि वे अपनी फालतू जमीन गरीबों को दान कर दें। परन्तु इस आन्दोलन द्वारा इस उद्देश्य से अपनाया गया तरीका उससे एकदम भिन्न था जो जमीदारों उन्मूलन में इस्तेमाल किया गया था। गाँधीवादी तकनीक से प्रेरणा पाकर विनोबा भावे के सर्वोदय समाज ने भूदान आन्दोलन में सामाजिक कायान्तरण का अहिंसात्मक तरीके वाला आदर्श अपनाया। विनोबा भावे तथा उनके अनुयायी दल ने गाँव-गाँव पदयात्रा की, बड़े भूमिधारकों से यह निवेदन करते हुए कि वे भूमिहीनों में बाँटे जाने के लिए भूदान के रूप में अपनी भूमि का एक बटा-छह भाग दान कर दें। यद्यपि यह आन्दोलन स्वतंत्र होने का दम भरता था, फिर भी उसे कांग्रेस पार्टी का समर्थन प्राप्त था। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने अपने कार्यकर्ताओं से आग्रह किया कि वे आन्दोलन का साथ दें।
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विनोबा भावे का भूदान संबंधी प्रयोग 1951 में आंध्र के तेलंगाना क्षेत्र में पोचमपल्ली गाँव में शुरू हुआ। तेलंगाना का चुना जाना महत्त्वपूर्ण था क्योंकि उस क्षेत्र में भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के नेतृत्व वाले सशस्त्र किसान विद्रोह की गूँज अब भी सुनाई देती थी। आंध्र में अपनी उल्लेखनीय सफलता के बाद यह आन्दोलन देश के उत्तरी भाग की और बढ़ गया। उत्तर में भूदान बिहार व उत्तर प्रदेश में प्रयोग किया गया। अपने प्रारंभिक वर्षों में इस आन्दोलन ने भूमि दानों को प्राप्त करने तथा उन्हें वितरित करने में काफी बड़ी मात्रा में सफलता हासिल की। परन्तु सफलता आन्दोलन के सामने आने वाली एक समस्या यह थी कि दान की गई भूमि का एक अच्छा-खासा भाग खेती के लिए कतई उपयुक्त नहीं था। ऐसी भूमि को लेने वाला कोई नहीं था।
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1955 में विनोबा भावे के प्रयोग ने एक और रूप ले लिया, यह रूप था ग्राम-दान यानी गाँव दान करना। यह विचार इस गाँधीवादी धारणा से जन्मा था कि सारी भूमि भगवान् की है। यह आन्दोलन उड़ीसा के एक गाँव से शुरू किया गया। ग्राम-दान गाँवों में इस आन्दोलन ने घोषणा की कि सारी भूमि पर सामूहिक अथवा समान रूप से अधिकार रहेगा। यह आन्दोलन उड़ीसा में बहुत सफल रहा। तदोपरांत इसे महाराष्ट्र, केरल व आंध्र में शुरू किया गया। यह आन्दोलन देश के जनजातीय इकों में विशेष रूप से सफल रहा, जहाँ वर्ग-विभेदन अभी उभरा ही नहीं था और स्वामित्व प्रतिमान में बहुत थोड़ी-सी असंगति थी।
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अनेक आलोचकगण भूदान व ग्राम-दान आन्दोलन को काल्पनिक कहकर खारिज करते हैं। इस आन्दोलन के खिलाफ एक अन्य आरोप यह लगाया जाता है कि इसने गरीबों व भूमिहीनों की वर्ग-चेतना का गला घोंट दिया और किसानों की क्रांतिकारी प्रयोगक्षमता पर लगाम कसने के रूप में काम किया ऐसा लगता है कि भूदान ग्रामदान आन्दोलन का उचित मूल्यांकन अभी किया जाना है। इस आन्दोलन के बारे में असाधारण बात यह है कि इसने भूमि के समान वितरण का लक्ष्य सरकारी कानून के माध्यम से नहीं बल्कि एक ऐसे आन्दोलन के माध्यम से किया जिसमें सम्बद्ध लोग शामिल थे। साथ ही, उसने ऐसा बिना किसी हिंसा अथवा दमन प्रयोग के बल्कि बड़े भूस्वामियों के सद्विवेक की अभ्यर्थना करके किया। इस आन्दोलन की उल्लेखनीय सफलता से परे उसने जमीन के पुनर्वितरण हेतु भी पर्याप्त प्रचार और आन्दोलन को जन्म देने में सफलता प्राप्त की।
Source:-
State_Politics_in_India_book_mpse-008_ignou