खनन परियोजना (श्रीलंका), Mining Project (Sri Lanka)


प्रस्तावना

जब श्रीलंका में सरकार ने फॉस्फेट (Phosphate) की खानों को संयुक्त राज्य अमेरिका की एक पारदेशीय अथवा परा राष्ट्रीय कम्पनी (Trans-national Company: TNC) के हाथों में देने का विचार किया तो वहाँ के वैज्ञानिकों, श्रमिक संगठन कार्यकर्ताओं और पुरोहितों ने उत्तर-पूर्वी श्रीलंका के किसानों का साथ दिया। यह एक और उदाहरण है पर्यावरण के खतरे पैदा करने वाली वैश्विक आर्थिक ताकतों के खिलाफ लोगों की सामूहिक कार्यवाही का इस विरोध का नेतृत्व इप्पेवाला फॉस्फेट खानों की सुरक्षा के लिए बनी समिति ने किया और कोलम्बो के श्रमिक संगठनों, वैज्ञानिकों और श्रीलंका के मुख्य धार्मिक समूहों के पुरोहितों ने इसमें भागीदारी की। अमेरिका के एक समूह आई एम सी एग्रो के नेतृत्व में, निर्यात के लिए फॉस्फेट उर्वरक बनाने हेतु विदेशी खनन कम्पनियों के एक समूह को इप्पेवाला स्थिति फॉस्फेट की प्रचुर चट्टानों को बेच देने के लिए सरकारी प्रयासों के संदर्भ में इस मुद्दे पर बहस हुई।


आई एम सी एग्रो तो आई एम सी ग्लोबल इंक और फ्रीपोर्ट मैकमोरन रिसोर्सेज पार्टनर्स के विलय से बनी है. जो इस योजनाओं के प्रारंभ से ही उससे जुड़ने वाली कम्पनी थी। यह योजना 58 वर्ग किमी के दायरे में संचालित है और इससे 26 गाँवों के कोई 12,000 लोगों का पुनर्स्थापन होता। बौद्ध विहार स्कूल और बड़ी संख्या में सरकारी इमारतें भी नष्ट हो जाती। पहले तो सरकार ने फॉस्फेट भजर की अच्छी-खासी कीमत के कारण इस परियोजना को चालू करने का फैसला किया था जबकि 25 साल पहले खोजे जाने के बाद से इन भण्डारों का उचित उपयोग नहीं हुआ था। बाद में यह फैसला किया गया कि इस परियोजना को किसी विदेशी फर्म के हाथों में दे दिया जाएगा क्योंकि श्रीलंका के पास फॉस्फेट के इस विशाल भण्डार के दोहन के लिए न तो तकनीकी ज्ञान था न पूँजी और न ही आवश्यक मशीनरी फॉस्फेट का वार्षिक खनन आज के 40,000 टन के मुकाबले लगभग 12 लाख टन होता। स्थानीय वैज्ञानिक 3,50,000 टन तक खनन को सुरक्षित मानते थे जिससे पर्यावरण और भावी इस्तेमाल भी प्रभावित नहीं होता।


पृष्टभूमि

इप्पेवाला श्रीलंका के उत्तरी मध्य प्रान्त के अनुराधापुरा से कोई 50 कि.मी दूर केकीरावा के निकट स्थित है। इस पूरे क्षेत्र में छोटी-छोटी नहरें कालावेवा के पानी को छोटे-छोटे तालाबों में पहुँचाती है और इन सबको बड़ी सावधानी से इप्पेवाला फॉस्फेट भण्डार जैसे चट्टानों से भरे इस क्षेत्र के प्राकृतिक जलविभाजकों के हिसाब से तैयार किया गया है। अनुमान है कि पानी साफ होता है तो फॉस्फेट जयगंगा में पहुँच जाता है। इप्पेवाला का इस क्षेत्र की उर्वरता में अद्भुत योगदान है जो युगों से श्रीलंका का एक प्रमुख धान पात्र रहा है। यह क्षेत्र प्राकृतिक दृश्यों, प्राकृतिक जलविभाजकों और आत्मनिर्भर संरक्षण पर्यावरण तंत्र के लिए मशहूर है। यह क्षेत्र संकटग्रस्त वन्यजीवों की सुरक्षा करता है क्योंकि यह वर्षा जल की एक-एक बूँद का और एक एक इच अच्छी मिट्टी का सदुपयोग करके न केवल कृषि को सहारा देता है बल्कि दुर्लभ जड़ी-बूटियों और उपयोगी जंगली फलों से भरपूर पुराने जंगलों के अटूट विस्तार को भी संभालता है।

प्राकृतिक जलविभाजकों के हिसाब से सावधानीपूर्वक किया गया यह संशोधन एक जटिल मानव निर्मित तंत्र का ही हिस्सा है। इस क्षेत्र के गाँव वाले इन जंगलों में काफी समय बिताते हैं और वे इस बात की पुष्टि करते हैं कि वे शब्दशः पुराने जमाने के माली है। यहाँ का एक भी पौधा बेकार नहीं है, और जंगलों में जगह-जगह ज्ञात और अज्ञात पुरातात्विक स्थल है। शताब्दियों पहले प्राकृतिक रूप ग्रहण करने वाली इन पर्यावरण व्यवस्था ने दो हजार वर्षों से भी अधिक समय से अतिरिक्त कृषि उत्पादन किया है।


खनन परियोजना

सरकार ने फॉस्फेट के प्रारंभिक खनन के लिए 56 वर्ग कि.मी. भूमि चिह्नित की है जहाँ लगभग 87 गाँव स्थित हैं। प्रभावित क्षेत्र में प्राचीन गाँवों के निवासी उन्हीं लोगों के वंशज है जिन्होंने शताब्दियों से मानव दक्षता के इस अविश्वसनीय कारनामे की प्रचुरता का भोग किया है। उनके मंदिर वही मंदिर हैं जिन्हें उनके पूर्वजों ने बनाया था, वे उन्हीं स्तूपों को पूरा करते हैं जो उस समय बनाए गए थे। जब उनके गाँव के तालाबों की खुदाई दो हजार वर्ष पहले की गई थी। हरेक गाँव में शव गाड़ने और जलाने (सोहोन- पिटिया) के लिए जो एकड़ों में फैले जंगल हैं वे उन्हीं पूर्वजों की अस्थियों से भरे हैं।


इप्पेवाला योजना की पड़ताल करने वाले अनेकानेक श्रीलंकाई और अन्तर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों, विद्वानों, पर्यावरणविदों और पत्रकारों ने चेतावनी दी है कि यदि इस परियोजना को चालू किया गया तो इस क्षेत्र को उसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे।

ये नकारात्मक परिणाम इप्पेवाला स्थित मौजूदा श्रम-केन्द्रित और धीमें खनन वाली परियोजना के साथ साथ है जिससे ''फॉस्फेट पर्वत" भी शताब्दियों तक खाली नहीं होगा, और हमेशा श्रीलंका की उर्वरक निर्यात की जरूरतों की पूर्ति होती रहेगी। न्यूजीलैण्ड के एक अध्ययन समूह ने इसे और तेजी से खाली करने का जो वैकल्पिक सुझाव दिया है उसमें यह पता चला है कि श्रीलंका सरकार खुद प्रारंभिक निवेश के लिए स्थानीय स्तर पर निर्यात योग्य उर्वरक का उत्पादन कर सकती है। अधिकतम स्थानीय लाभ के स्रोत इप्पेवाला फॉस्फेट भण्डार के दोहन हेतु वैकल्पिक प्रस्तावों को देखने के बजाय अपेक्षाकृत अधिक हानिप्रद और कम लाभदायक प्रस्ताव पर काम करने की सरकारी इच्छा में तर्क का अभाव दिखाई देता है।


सच तो यह है कि इस 56 वर्ग कि.मी. के क्षेत्र में कोई भी स्थान महत्वहीन नहीं है, क्योंकि ऐसी एक इंच भी जमीन नहीं है जहाँ किसी का घर या किसी की रोजी-रोटी नहीं है, वह प्राचीन शुद्ध "शुष्क क्षेत्र'' जंगल का ही एक हिस्सा है। विशेषकर पिछल दो सौ वर्षों में इप्पेवाला इस क्षेत्र में पारम्परिक (आयुर्वेदिक) औषधि के प्रमुख केन्द्र के रूप में प्रसिद्ध है और जैसा कि उल्लेख किया जा चुका है, ये जंगल असंख्य शताब्दियों पहले औषधि उपवनों रूप में ही लगाए गए थे। इनसे जो उत्पाद मिलते हैं, उनसे आसपास के गाँवों में रहने वालों का जीवन आरामदेह संभव होता है और औषधियों के अतिरिक्त उनसे हर प्रकार की भोजन-सामग्री, ईंधन, करी पत्ता और दुर्लभ मशरूम जैसी नकदी "फसलें" तालाब की मछलियाँ, और भवन-निर्माण की सामग्री प्राप्त होती है। यही नहीं, ये "अविकसित जमीनें" तमाम किस्म के वन्य जीवों के आत्मनिर्भर घर भी हैं और वे महत्वपूर्ण इतिहास और अवशेषों से परिपूर्ण हैं।


परियोजना के दुष्प्रभाव

इस परियोजना में भारी संख्या में लोगों का विस्थान भी शामिल है प्रारंभिक अनुमान के अनुसार प्रारंभिक खनन क्षेत्र में रहने वाले 12,000 परिवारों के 40,000 लोग और बफर क्षेत्र में रहने वाले कोई 5,00,000 लोग इस परियोजना से प्रभावित होंगे।

इसके अतिरिक्त, इसे खतरनाक उपोत्पाद भी निकलेंगे; कैंसरजनक धूल और चट्टानों के अवशिष्ट, शोर, विषैले तत्व और भूजल का प्रदूषण जो लोग विस्थापित नहीं होंगे उन पर भी परियोजना के दुष्प्रभाव पडेंगे, क्योंकि फॉस्फेट का खनन सबसे गंदा और पर्यावरणीय अतिक्रमण वाला काम है।

यही नहीं, "जायंट्स कैनाल" का छह मील लंबा हिस्सा इस परियोजना की भेंट चढ़ जाएगा, जबकि इस नहर के पास ही खनन का काम होने से इस क्षेत्र का सारा जल प्रदूषित हो जाएगा; समूची कालावेवा-जयगंगा जल तथा मृदा संरक्षण पर्यावरण व्यवस्था को संभालने वाले जटिल सामाजिक, प्राकृतिक तथा प्रौद्योगिकीय नेटवर्क गड़बड़ा जाएँगे।


परियोजना का विरोध

एक बौद्ध भिक्षु की अध्यक्षता में, इप्पेवाला फॉस्फेट को बचाने के लिए बनी जमीनी स्तर की समिति इस योजना के विरुद्ध तभी से काम कर रही है जब 1990 के दशक के प्रारंभ में पहली बार इसकी गुप्त वार्ता की खबर लीक हुई थी। यह समिति 1996 में तब विशेष रूप में सक्रिय हुई जब 1994 में इस क्षेत्र का समर्थन प्राप्त करने वाली सरकार ने इप्पेवाला को ''जिम बॉब'' मोफेट के समूह फ्रीपोर्ट-मैकमोरन के हाथों में दे देने के लिए अपनी गुप्त वार्ता शुरू कर दी थी। प्रसंगवश, यह समर्थन श्रीलंका के राष्ट्रपति के इस वादे पर दिया गया था कि इप्पेवाला फॉस्फेट भण्डार को विदेशी कम्पनियों के हाथों में नहीं दिया जाएगा। पहली जन-विरोधी रैली श्रीलंका के अनुराधापुरा में पचासवें स्वतंत्रता दिवस समारोह के अवसर पर फरवरी 1998 में निकाली गई, इस रैली में भाग रहे अनुमानित 20,000 लोगों ने श्रीलंका की प्राचीन सभ्यता की इस मुख्यभूमि को नव-उपनिवेश के हाथों अपवित्र किए जाने के विरोध में पवित्र बोधि वृक्ष के समीप भूख हड़ताल की। उसके बाद कोलंबो में (फरवरी 1998 में) और इप्पेवाला में (जून 1998, दिसम्बर 1998, मार्च 1999, अगस्त 1999, अक्तूबर 1999 में) रैलियाँ हुईं, और उनमें हजारों लोगों ने भाग लिया। इससे पूर्व बौद्ध धर्म स्वयं अहिंसक है।

जहाँ इस समिति का स्पष्ट दर्शन गांधीवादी सामाजिक कार्यवाही के अध्ययन पर आधारित अहिंसक विरोध प्रदर्शन है, वहीं इन रैलियों में अत्यंत प्रतीकात्मक हिंसा भी शामिल रही है, जैसे “कम्पनी" का ("मैकमोरन" का लेबल लगा) पुतला और श्रीलंका के राष्ट्रपति का पुतला फूँकना, और आक्रोश प्रकट करते नारे और हाव-भाव का प्रयोग, और मरते दम तक लड़ते रहने का वादा। सचमुच, स्थानीय विरोध आन्दोलन के नेता परमपूज्य एम. पियरतना ने शपथ ली है कि यदि उनके तर्क नहीं सुने गए तो वह ऐसा ही करेंगे। 


अंततः श्रीलंका के राष्ट्रपति और अमेरिकी राजदूत के साथ कई बैठकों के बाद, और सैकड़ों पूज्य बौद्ध भिक्षुओं के हस्ताक्षर वाली याचिकाएँ देने और सिंहली अखबारों में विचारोत्तेजक लेख छपने के बाद, सरकार ने इस प्रस्ताव को वापस ले लिया है।

Tags

एक टिप्पणी भेजें

3 टिप्पणियाँ
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.